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- न्यू ज़ीलैण्ड में शुरुआती रेफेरेंडम के परिणाम में अधिकतर मतदाताओं ने जीवन को ख़त्म करने के अधिकार सम्बन्धी कानून 2019 के पक्ष में वोट दिए हैं।
- न्यू ज़ीलैण्ड में मतदाताओं ने 2 रेफेरेंडम में वोट डाले। इसकी मतदान प्रक्रिया बिलकुल वैसी ही थी जैसी आम चुनावों के दौरान रहती है।
- एक रेफेरेंडम कैनबिस सम्बन्धी विधेयक और इसके नियंत्रण को लेकर था जिसमे तकरीबन 53 फीसदी मतदाताओं ने इसके विरोध में मतदान किया।
- दूसरा रेफेरेंडम जीवन को ख़त्म करने के बहिष्कार सम्बन्धी कानून को लेकर था की इसे वूड में आना चाहिए या नहीं।
- न्यू ज़ीलैण्ड की प्रधानमंत्री जैसिंडा आर्डेन ने बताया की उन्होंने दोनों रेफेरेंडम के हक़ में मतदान किया। गौर तालाब है की रेफेरेंडम को लेकर ये मतदान बीते शुक्रवार को किया गया।
- इस क़ानून का मकसद कुछ गंभीर रूप से बीमार लोगों को उनकी मांग पर उन्हें आपा जीवन ख़त्म करने के सम्बन्ध में चिकित्सकीय सहायता का विकल्प उपलब्ध कराना है।
- इसके तहत ऐसे लोगों के लिए एक कानूनी प्रक्रिया भी तैयार करना है ताकि वे इस विकल्प का इस्तेमाल कर सकें।
- इस क़ानून के विरोध में यूथेनेसिया फ्री ऍन जेड समूह का तर्क है की इस कानून में निगरानी और सुरक्षा सम्बन्धी कुछ खामियां हैं।
- समूह का कहना है इसमें योग्यता को लेकर डाली गयी शर्तें जैसे 18 साल की आयु सीमा और 6 महीने की निदान प्रक्रिया जैसे कुछ मनमाने प्रावधान हैं जो इस क़ानून को कमज़ोर बनाते हैं।
- बीते साल नवंबर के महीने में ये क़ानून पास किया गया था लेकिन 2020 में इसे लागू करने के लिए रेफेरेंडम के तहत कम से कम 50 फीसदी लोगों का मतदान ज़रूरी था।
- गौर तलब है की इस कानून को वज़ूद में लाने के लिए सबसे अहम् मामला था वहाँ की एक वकील लेक्रेटिया सील्स का।
- सील्स को 2011 में ब्रेन कैंसर हुआ था। सील्स के इलाज़ की सभी विकल्प ख़त्म होने के बाद उन्होंने अपने जीवन ख़त्म करने के लिए मौजूद विकल्पों का सहारा लिया।
- इन विकल्पों में उन्होंने डॉक्टर की मदद से आत्महत्या का विकल्प चुना।
- उनके पति ने क ब्लॉग के ज़रिये बताया की उनकी पत्नी ने डॉक्टरों की मदद से अपना जीवन समय से पहले ही ख़त्म करने का विकल्प चुना था क्योंकि उनके मुताबिक़ उनकी गुणवत्तापूर्ण ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी थी और वे ऐसे ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थीं जिसमे उनकी मृत्यु से पहले सिर्फ लंबा दर्द ही था।
- इच्छा मृत्यु को न्यू जीलैंड में यूथेनेसिया के नाम से जाना जाता है।
- इच्छा मृत्यु के तहत मानसिक रूप से सेहतमंद एक व्यस्क अगर ऐसी बीमारी से जूझ रहा है जिसमें छह महीने के अंदर अंदर उसकी मृत्यु होने का अनुमान है।
- अगर ऐसा मरीज़ “असहनीय पीड़ा” से गुज़र रहा है तो उसे जहरीली दवा देकर इच्छा मृत्यु में उसकी मदद की जा सकती है। इसके लिए मरीज़ को एक अनुरोध पात्र देना पड़ता है।
- इस अनुरोध पत्र पर मरीज के डॉक्टर, और एक ऐसे डॉक्टर के दस्तखत होने चाहिए जिसका मरीज़ से कोई वास्ता न हो।
- यहां पर ये बात बता देना ज़रूरी है की अगर मरीज़ को किसी तरह की कोई मानसिक दिक्कत है तो अनुरोध पत्र पर एक मानसिक चिकित्सक का भी दस्तखत चाहिए होगा।
- हालांकि मौजूदा कानून के हिसाब से न्यूजीलैंड में अगर कोई किसी मरीज़ को मरने में मदद देता है, तो उस पर आत्महत्या में सहायता या आत्महत्या के लिए विवश करने का इलज़ाम लगाया जाता है।
- इसके लिए मदद करने वाले शख्स को ज़्यादा से ज़्यादा 14 साल की जेल या फिर हत्या के इलज़ाम के तहत उम्रकैद की सजा दी जाएगी।
आम तौर पर इच्छा मृत्यु को दो तरह से अंजाम दिया जाता है
सक्रीय इच्छा मृत्यु या एक्टिव यूथेनेसिया
- लाइलाज बीमारी से जूझ रहे मरीज़ को इसके तहत कुछ ऐसी दवाएं दी जाती हैं जिससे मरीज को राहत मिल जाये और उसकी पीड़ा कम हो जाये लेकिन बाद में उसकी मृत्यु हो जाए।
- इस तरीके को भी दुनिया के कुछ देशों ने वैधानिक मान्यता दे रखी है।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु या पैसिव यूथेनेसिया
- इस तरीके में मरीज का इलाज़ बंद कर दिया जाता है या जीवन रक्षक प्रणालियाँ हटा ली जाती हैं।
- इस तरीके को दुनिया के ज़्यादातर देशों में मान्यता मिली हुई है और इसे कम विवादित माना जाता है।
- भारत में इच्छा-मृत्यु या यूथेनेसिया पूरी तरह से गैर कानूनी है।
- इसके अलावा दया मृत्यु को भी यहां अपराध के तौर पर देखा जाता है।
- भारत में मौत की कोशिश करने पर आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या (suicide) का अपराध माना जाता है ।
- इसी तरह इच्छा मृत्यु जो मानवीय मूल्यों के तहत सही है और मरीज़ के असहनीय दर्द को कम करने के लिए किया जाता है लेकिन
- इसके बावजूद भी इसे आईपीसी की धारा 304 के तहत हत्या जैसा अपराध करार दिया जाता है।
- अरुणा शॉनबाग का मामला शायद भारत का सबसे पहला मामला था जिसे इच्छामृत्यु के सम्बन्ध में सबसे ज़्यादा चर्चा मिली।
- हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ 9 मार्च 2018 को ऐतिहासिक फैसले में इच्छा मृत्य की इजाजत दे दी थी।
- लेकिन अरुणा शानबाग मामले में इसे खारिज कर दिया गया था । गौर तलब है की अरुणा शॉनबॉग की 42 साल तक कोमा में रहने के बाद 18 मई 2015 को मृत्यु हो गयी थी।
- अरुणा शॉनबॉग के साथ साल 1973 में मुंबई के केईएम हॉस्पिटल में रेप हुआ था ।
- पत्रकार पिंकी वीरानी ने अरुणा को इच्छा या दया मृत्यु देने की मांग की थी।
- हालाँकि पिंकी वीरानी की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2011 को नकार दी थी।
- इच्छा मृत्यु दुनिया के कई देशों में वैध है हालांकि इनमे से कुछ देशों में सक्रीय इच्छा मृत्यु और कुछ देशों में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को मान्यता दी गयी है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका में सक्रिय इच्छा मृत्यु को ग़ैर-क़ानूनी माना जाता है लेकिन यहाँ के कुछ राज्यों में जैसे ओरेगन, वॉशिंगटन और मोंटाना राज्यों में डॉक्टर की सलाह और उसकी सहायता से इच्छा मृत्यु को मान्यता मिली हुई है।
- स्विट्ज़रलैंड में ख़ुद से ज़हरीली सुई लेकर खुदकुशी करने की इजाज़त है, लेकिन इच्छा मृत्यु को कानूनी मंज़ूरी नहीं है।
- नीदरलैंड्स में डॉक्टरों द्वारा सक्रिय इच्छा मृत्यु और मरीज की मर्ज़ी से दी जाने वाली मौत पर कोई दंड नहीं दिया जाता है।
- यूरोप के देश बेल्जियम में सितंबर 2002 से इच्छा मृत्यु को कानूनी वैधता का दर्ज़ा दिया जा चुका है।
- हालांकि यूरोप के बड़े देशों जैसे ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस और इटली जैसे यूरोपीय देशों सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में इच्छा मृत्यु ग़ैर-क़ानूनी है।