
चर्चा में क्यों?
19 सितम्बर को भारत पाकिस्तान के बीच हुए सिंधु जल समझौते के 60 साल हो जाएंगे। सिंधु जल समझौता एक ऐसा समझौता है जिसे आम तौर पर एक ऐसे समझौते के तौर पर देखा जाता है जो भारत पाकिस्तान के कड़वे रिश्तों के बावजूद शांतिपूर्ण संभावनाओं का एक बेहतरीन उदहारण पेश करती है। सिंधु जल समझौते में एक अहम् भूमिका निभाने वाली संस्था विश्व बैंक इस संधि के सुचारू रूप से चलने पर अभी भी गर्व का अनुभव करती है
सिंधु जल समझौता : अहम् बिंदु
1947 में भारत और पाकिस्तान बंटवारे के बाद सिंधु नदी तंत्र का बंटवारा बेहद ज़रूरी हो गया था। लम्बे आरसे तक चली बातचीत और समझौतों के बाद ये तय किया गया की सिंधु नदी तंत्र को दो भागों में बाँट दिया जाये।
तीन पश्चिमी नदियाँ जिनमे सिंधु झेलम और चेनाब शामिल थीं पाकिस्तान के नियंत्रण में जबकि पूर्वी ३ नदियां सतलज रावी और ब्यास को भारत के नियंत्रण में रखने का फैसला किया गया। हालांकि यह बंटवारा बराबरी का नज़र आता है लेकिन इस समझौते से पाकिस्तान को सीधा लाभ प्राप्त हुआ, क्योंकि इसके तहत भारत 80.52 फीसदी पानी पाकिस्तान को देने पर राज़ी हुआ जबकि भारत को महज़ 19.48 फीसदी हिस्सा ही मिला ।
इसके अलावा भारत पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों पर नहरों के निर्माण के लिये 83 करोड़ रुपए (पाउंड स्टर्लिंग में) देने पर भी सहमत हुआ ।
आपको बता दें कि पाकिस्तान की तकरीबन 2.6 करोड़ एकड़ ज़मीन सिंचाई के लिए सिंधु नदी या इसकी सहायक नदियों पर निर्भर है।
आज़ादी के बाद भारत के विकास में जल की भूमिका काफी अहम् थी। इसलिये प्रस्तावित राजस्थान नहर और भाखड़ा बांध के लिये ’पूर्वी नदियों’ का पानी बेहद ज़रूरी था। इसके बगैर पंजाब और राजस्थान में सूखा पड़ सकता था साथ ही कृषि उपज की भारी कमी होने से भी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती थी।
उस वक़्त भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भक़रा नागल बाँध में पानी की कमी न होने को लेकर सचेत थे। इसके साथ ही भारत द्वारा पूर्वी नदियों के हितों की सुरक्षा करने से भी अपना ध्यान नहीं हटाया था।
भारत की बढ़ती मुश्किलें
साल 1976 के बाद से ही पाकिस्तान भारत पर इस संधि को तोड़ने का इलज़ाम लगाता रहा है। इसकी वजह थी की भारत पश्चिमी नदियों पर कई सारी परियोजनाएं शुरू कर रहा था। इनमे चिनाब नदी पर ‘सलाल पनबिजली परियोजना’, वुलर बैराज परियोजना, बागलीहार जलविद्युत परियोजना और किशनगंगा पनबिजली परियोजना जैसी कई परियोजनाएं शामिल हैं। पाकिस्तान हमेशा से ये इलज़ाम लगाता रहा है की इन परियोजनाओं की वजह से उसे पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है।
पाकिस्तान के मुताबिक़ पश्चिमी नदियों पर भारत की परियोजनाएँ तकनीकी शर्तों का पालन नहीं करती हैं।
इसके अलावा सिंधु और सतलज नदी तिब्बत से निकलती है और मौजूदा वक़्त में चीन इन नदियों पर बांध निर्माण या अन्य परियोजनाओं पर कार्य कर रहा है।
संधि पर क्या कहना है भारत का :
संधि में यूँ तो पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों पर हक़ दिया गया है, लेकिन भारत इन नदियों के पाकिस्तान में प्रवेश करने से पहले इसके पानी को बिजली उत्पादन के लिए इस्तेमाल कर सकता है।
संधि की शर्तों के मुताबिक़ भारत पश्चिमी नदियों पर क्रमशः 1.25, 1.60, और 0.75 मिलियन एकड़ फीट (MAF) [कुल 3.6 MAF] भंडारण इकाइयों का निर्माण कर सकता है ।इन भण्डारण इकाइयों का मकसद बाढ़ के पानी को इकट्ठा करने ,बिजली पैदा करने और आम इस्तेमाल के लिए किया जा सकता है। हालाँकि अभी तक भारत ने ऐसी किसी भण्डारण इकाई का निर्माण नहीं किया है।
संधि को निरस्त करने की मांग:
पाकिस्तान के भारत में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने और हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम देने के बाद कई बार भारत में इस सिंधु जल संधि को निरस्त करने की मांग उठती रही है।
हालांकि इस संधि में किसी भी पक्ष के द्वारा एकतरफा तरीके से इसे निरस्त करने का प्रावधान नहीं है। लेकिन साल 2001 में संसद हमला, साल 2008 में मुंबई हमला और साल 2016 में उरी और साल 2019 में पुलवामा हमले के बाद भारत के पास ‘वियना समझौते’ के लॉ ऑफ ट्रीटीज़ की धारा-62 के मुताबिक़ इस संधि से अलग होने के विकल्प मौजूद थे।
क्या है संधि का भविष्य
विशेषज्ञों की माने तो , भारत और पाकिस्तान को सिंधु नदी तंत्र के पानी का अधिक-से-अधिक लाभ लेने के लिये इस संधि के अनुच्छेद-7 (भविष्य में सहयोग) के तहत इसके विकास हेतु साझा प्रयासों को बढ़ावा देने चाहिये।
सिंधु जल संधि के अनुच्छेद-12 के मुताबिक़ किसी उद्देश्य के लिये इस संधि में संशोधन का प्रावधान है, लेकिन पाकिस्तान संधि में संशोधन के माध्यम से वर्ष 1960 में मिले बड़े हिस्से में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहेगा।
भारत अगर पानी का सही ढंग से इस्तेमाल करे तो संधि के प्रावधानों के तहत ही इसके फायदों को उठाया जा सकता है लेकिन बेहतर जल प्रबंधन की कमी के चलते काफी पानी बर्बाद हो जाता है।